उद्यमेन हि सिध्यन्ति
कार्याणि न मनोरथैः।
न हि सुप्तस्य सिंहस्य
प्रविशन्ति मुखे मृगा: ।।
अर्थात
परिश्रम करने से ही कार्य
सिद्ध होता है न कि केवल चाहने मात्र से।
जिस प्रकार सोये हुए सिंह
के मुख में हिरण स्वयं ही प्रवेश नहीं करता।
कठिन परिश्रम किए बिना किसी
की उन्नति नहीं हो सकती और न ही सुख-समृद्धि प्राप्त हो सकती है। परिश्रम के
द्वारा कठिन से कठिन कार्य को पूर्ण किया जा सकता है। सभ्यता के विकास की गाथा भी
परिश्रम का प्रतिफल है। वर्तमान की विकसित मानव-सभ्यता हमारे पूर्वजों के परिश्रम का फल है। संसार के सब विकसित देशों की विकास-यात्रा उनके
देशवासियों के कठिन परिश्रम का परिणाम है। इस संसार के सफलतम व्यक्तियों के जीवन से यही सीख मिलती है कि उन्होंने जीवन में हर चुनौती का
डटकर मुकाबला किया और अथक परिश्रम किया , तब जाकर
सफलता का आनंद उन्हें प्राप्त हुआ ।उन्होंने आलस्य को
अपने आसपास भटकने भी नहीं दिया और न ही वे भाग्य के भरोसे बैठे रहे
बल्कि अपने परिश्रम के द्वारा उन्होंने असंभव को भी संभव कर दिखाया।
परिश्रम मानव जीवन का वह
शस्त्र है जिससे बड़े से बड़े एवं कठिन से कठिन लक्ष्य को हासिल किया जा
सकता है। परिश्रम वह गुण है जिसे धारण करने पर व्यक्ति के दु:ख मिट जाते हैं ।
परिश्रम ही सफलता का मूल मंत्र है । यह कभी भी व्यर्थ नहीं
जाता । परिश्रमी लोगों ने संसार में कठिन से कठिन कार्य को कर दिखलाया है। उन्होंने अपने संघर्षों से अपने लक्ष्य को प्राप्त कर ही लिया
है।। किसान और मजदूर अथक परिश्रम
करते हुए संसार को भोजन , वस्त्र और आवास प्रदान करते हैं । व्यापारियों और
पूंजीपतियों के श्रम से देश में रोजगार के नए-नए अवसर प्राप्त होते हैं ।
परिश्रमी व्यक्ति ही समाज
में अपना विशिष्ट स्थान बना पाते हैं । अपने परिश्रम के वजह से ही कोई व्यक्ति भीड़ से उठकर एक महान कलाकार, शिल्पी, राजनेता, उद्योगपति, इंजीनियर, डॉक्टर, कलेक्टर अथवा एक महान
वैज्ञानिक बनता है ।
परिश्रम पर यकीन करने वाले व्यक्ति ही अपने लक्ष्य को पाते है। किसी देश में नागरिकों की कर्म
साधना और कठिन परिश्रम ही उस देश व राष्ट्र को विश्व के मानचित्र पर प्रतिष्ठित
करता है ।
“विश्वास करो,
यह सबसे बड़ा देवत्व है कि –
तुम पुरुषार्थ करते मनुष्य
हो
और मैं स्वरूप पाती
मृत्तिका ।”
अर्थात उन्नति विकास एवं समृद्धि के लिए यह आवश्यक है कि सभी मनुष्य
परिश्रमी बनें । परिश्रम वह कुंजी है जो साधारण से साधारण मनुष्य को भी विशिष्ट
बना देती है। परिश्रमी लोग सदैव प्रशंसा व सम्मान पाते हैं । वास्तविक रूप में
उन्नति व विकास के मार्ग पर वही व्यक्ति अग्रसर रहते हैं जो परिश्रम से नहीं भागते
।
मनुष्य के जीवन में परिश्रम
का बहुत महत्त्व होता है। हर प्राणी के
जीवन में परिश्रम का बहुत महत्त्व होता है। इस संसार में कोई भी प्राणी काम किये
बिना नहीं रह सकता है। प्रकृति का कण-कण, बने हुए नियमों से अपना-अपना काम करता
है। चींटी का जीवन भी परिश्रम से ही पूर्ण होता है। मनुष्य परिश्रम करके अपने जीवन
की हर समस्या से छुटकारा पा सकता है| सूर्य हर रोज निकलकर विश्व को
प्रकाशित करने का कर्म करता है।
वह कभी भी अपने नियम का
उल्लंघन नहीं करता है।
मानव यदि ठान ले तो ,
पर्वतों को काटकर सड़क बना सकता है, नदियों पर पुल बना सकता है, जिन रास्तों पर काँटे होते
हैं उन्हें वह सुगम बना सकता है। समुद्रों की छाती को चीरकर आगे बढ़ सकता है।
नदियाँ भी दिन-रात यात्रा करती रहती हैं। वनस्पतियाँ भी वातावरण के अनुसार परिवर्तित
होती रहती हैं। कीड़े, पशु, पक्षी अपने दैनिक जीवन में व्यस्त रहते हैं।
ऐसा कोई भी कार्य नहीं है
जो परिश्रम से सफल न हो सकें। जो पुरुष दृढ प्रतिज्ञ होते हैं , उनके लिए विश्व का
कोई भी कार्य कठिन नहीं होता है। वास्तव में बिना श्रम के मानव जीवन की गाड़ी चल
नहीं सकती है। श्रम से ही उन्नति और विकास का मार्ग खुल सकता है। परिश्रम और
प्रयास की बहुत महिमा है। अगर मनुष्य परिश्रम नहीं करता तो आज संसार में कुछ भी
नहीं होता। आज संसार ने जो इतनी उन्नति की है वह सब परिश्रम का ही परिणाम है।
परिश्रम अथवा कर्म का महत्व
श्रीकृष्ण ने भी अर्जुन को गीता के उपदेश द्वारा समझाया था । उनके अनुसार:
”कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन: ।”
परिश्रम अथवा कार्य ही
मनुष्य की वास्तविक पूजा-अर्चना है । इस पूजा के बिना मनुष्य का सुखी-समृद्ध होना
अत्यंत कठिन है । वह व्यक्ति जो परिश्रम से दूर रहता है अर्थात् कर्महीन, आलसी व्यक्ति सदैव दु:खी व दूसरों पर निर्भर रहने वाला होता है।
परिश्रमी व्यक्ति अपने कर्म
के द्वारा अपनी इच्छाओं की पूर्ति करते हैं । उन्हें जिस वस्तु की आकांक्षा होती
है उसे पाने के लिए रास्ता चुनते हैं । ऐसे व्यक्ति मुश्किलों व संकटों के आने से
भयभीत नहीं होते अपितु उस संकट के निदान का हल ढूँढ़ते हैं। अपनी कमियों के लिए वे
दूसरों पर लांछन या दोषारोपण नहीं करते हैं।
कर्महीन अथवा आलसी व्यक्ति
सदैव भाग्य पर निर्भर होते हैं । अपनी कमियों व दोषों के निदान के लिए प्रयास न कर
वह भाग्य का दोष मानते हैं । उसके अनुसार जीवन में उन्हें जो कुछ भी मिल रहा है या
फिर जो भी उनकी उपलब्धि से परे है उन सब में ईश्वर की इच्छा है । वह भाग्य के
सहारे रहते हुए जीवन पर्यंत कर्म क्षेत्र से भागता रहता है । वह अपनी कल्पनाओं में
ही सुख ढूँढता रहता है परंतु सुख किसी
मृगतृष्णा की भाँति सदैव उससे दूर बना रहता है ।
इसीलिए सदैव कर्म और
परिश्रम के आनन्द में हर चुनौती को स्वीकार करते हुए मनुष्य को नियमित रूप से
परिश्रम में लग्न रहना चाहिए | इससे उसे संसार में सभी भौतिक सुविधाओं के साथ साथ
समाज में यश की प्राप्ति होगी|
अर्चना शर्मा सहायक शिक्षक प्राथमिक शाला मुड़पार
विकासखंड अकलतरा जिला जांजगीर चाम्पा छतीसगढ़
एम्. ए इंग्लिश . डी एड
1 Comments
धन्यवाद सर जी
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